कोणार्क सूर्य मंदिर(Surya Temple) ,Konark Surya Temple ki Kahani humari jabani ,Konark Surya Mandir Ya fir Konark Temple.एक ऐसा मंदिर है जिससे जुड़ी कई बातें आज भी रहस्य हैं, इस मंदिर की ओर बड़े से बड़ा जहाज भी खींचा चला जाता था।
इस मंदिर में लगा था चुंबक
कोणार्क सूर्य मंदिर एक ऐसा मंदिर है जिससे जुड़ी कई बातें आज भी रहस्य हैं, इस मंदिर की ओर बड़े से बड़ा जहाज भी खींचा चला जाता था। बेहद खूबसूरत और रहस्यमयी कोणार्क का सूर्य मंदिर पुरी के उत्तर पूर्वी किनारे पर समुद्र तट के करीब स्थित है।
बता दें कि कोणार्क शब्द, कोण और अर्क शब्दों के मेल से बना है। अर्क का अर्थ होता है सूर्य जबकि कोण से अभिप्राय कोने या किनारे से रहा होगा। यह 13वीं शताब्दी का सूर्य मंदिर है जो भारत के ओडिशा राज्य के कोणार्क में स्थित है।
ऐसा कहा जाता है कि कोणार्क सूर्य मंदिर को पहले समुद्र के किनारे बनाया जाना था लेकिन समुद्र धीरे-धीरे कम होता गया और मंदिर भी समुद्र के किनारे से थोडा दूर हो गया। और मंदिर के गहरे रंग के लिये इसे काला पगोडा कहा जाता है।
कोणार्क का सूर्य मंदिर कई कारणों के पूरी दुनिया में मशहूर है। इस मंदिर के बारे में कहा जाता है कि यंहा भगवान के साक्षात दर्शन होते हैं। 52 टन का चुंबक, अद्वितीय मूर्तिकला और कई कहानियां इस मंदिर को खास बनाती है। भारत के इस प्राचीन और ऐतिहासिक मंदिर को यूनेस्को ने विश्व-धरोहर के रूप में संजोया है।
कुछ लोग कहते है कि सूर्य मन्दिर के शिखर पर 52 टन का चुम्बकीय पत्थर लगा था। इस चुंबक की वजह से समुद्र की कठोर परिस्थितियों को सहन कर पाता था।
मुख्य चुंबक के साथ अन्य चुंबकों की अनूठी व्यवस्था से मंदिर की मुख्य मूर्ति हवा में तैरती रहती थी। इसके असर से कोणार्क के समुद्र से गुजरने वाले जहाज इस ओर खिंचे चले आते हैं जिससे उन्हें भारी क्षति हो जाती है इसलिए अंग्रेज इस पत्थर को अपने साथ निकाल ले गए। इस पत्थर के कारण दीवारों के सभी पत्थर संतुलन में थे और इसके हटने के बाद इस मंदिर की दीवारों का संतुलन खो गया और वे गिर पड़ीं।
इस मंदिर में सूर्य भगवान की तीन प्रतिमाएं हैं, बाल्यावस्था-उदित सूर्य और जिसकी ऊंचाई 8 फीट है। युवावस्था जिसे मध्याह्न सूर्य कहा जाता है इसकी ऊंचाई 9.5 फीट है जबकि तीसरी अवस्था है प्रौढ़ावस्था जिसे अस्त सूर्य भी कहा जाता है जिसकी ऊंचाई 3.5 फीट है।
महाराजा नरसिंहदेव ने बनवाया था ये मंदिर
ऐसा माना जाता है कि ये मंदिर पूर्वी गंगा साम्राज्य के महाराजा नरसिंहदेव ने 1250 CE में बनवाया था। यह मंदिर बहुत बडे रथ के आकार में बना हुआ है जिसमें कीमती धातुओं के पहिये, पिल्लर और दीवारे बनी हुई हैं। इस मंदिर की कल्पना सूर्य के रथ के रूप में की गई है।
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