सोनिया गांधी की सच्चाई जो कांग्रेस द्वारा छिपाई गई है सोनिया गांधी को लेकर हदें लांघने और किस्से सुनाने की हिमाकत कोई नहीं कर सकता. पी.वी. नरसिंह राव को किस्सागोई का सहारा लेना पड़ा और फिर भी उनका उपन्यास वहीं खत्म हो गया जहां उनके शागिर्द ने प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाली. अर्जुन सिंह के संस्मरण मरणोपरांत छपे और उससे पहले ही उनके परिवारवालों ने देश के प्रथम परिवार पर चोट कम-से-कम करने के लिए उसमें उपयुक्त फेरबदल कर दिया था. 83 वर्ष के कुंवर नटवर सिंह भी बगावत करेंगे इस पर किसी को यकीन नहीं हो सकता. नेहरूवाद को तमगे की तरह सीने से चिपकाए नटवर सिंह ने 31 साल भारतीय विदेश सेवा और 24 साल कांग्रेस में बिताए हैं और आज भी अपनी एक जमाने की दोस्त सोनिया को बड़ी शिद्दत से याद करते हैं.
वे बताते हैं कि कैसे सोनिया के साथ किताबों (सोनिया ने 1988 में उन्हें गैब्रिएल गार्सिया मार्केज की पुस्तक वन हंडे्रड ईयर्स ऑफ सॉलिट्यूड पढऩे को कहा), लोगों (सोनिया ने उन्हें ऐसी बातें बताईं जिन्हें प्रियंका और राहुल को भी नहीं बताया था) पर चर्चा करते हुए घंटों बिताए और राजनैतिक गपशप भी की (उन्होंने मोनिका लेविंस्की के साथ बिल क्लिंटन के प्रेम प्रसंग पर भी बात की थी). नटवर सिंह कहते हैं, “वे राजसी भोजों के दौरान भी मुझे कागज पर चुटकुले लिखकर भेजा करती थीं.” नटवर सिंह ने घंटों सोनिया के भाषण तैयार करने में उनके साथ बिताए, उनके साथ विदेश यात्राएं कीं और कई संवेदनशील काम भी किए जैसे प्रधानमंत्री पद के लिए उनकी पसंद मनमोहन सिंह के नाम पर कांग्रेस के नेताओं को राजी कराया.
इसलिए जब नटवर सिंह ने अपनी नई किताब वन लाइफ इज नॉट इनफ में सब कुछ कह डालने का फैसला किया तो आप समझ सकते हैं कि सोनिया क्यों बेचैन हैं और जैसा कि नटवर सिंह बार-बार कहते हैं, क्यों सोनिया ने अपनी बेटी प्रियंका के साथ उनके जोरबाग स्थित निवास पर जाकर यह किताब न छपवाने की चिरौरी की. क्या सोनिया की नजर में यह किताब अपनी तरफ ध्यान खींचने की कोशिश है? या अनाज के बदले तेल घोटाले में वोल्कर रिपोर्ट आने के बाद अकेला छोड़ दिए जाने का प्रतिशोध है?
सोनिया के विरोधियों के लिए तो यह बहुत गरम मसाला है. नटवर ने अपनी किताब में एक से एक चौंकाने वाले भेद खोले हैं. वे लिखते हैं कि सोनिया ने प्रधानमंत्री बनने से इसलिए इनकार किया क्योंकि राहुल ने चेताया था कि अगर ऐसा किया तो “अपनी मां को रोकने के लिए कुछ भी कर गुजरेंगे.” नटवर ने इस किताब में लिखा है कि राहुल ने अपनी मां को फैसला बदलने के लिए 24 घंटे दिए थे. इस चेतावनी ने उन्हें रुला दिया. पिछले चुनाव में प्रधानमंत्री पद के दावेदार बताए गए राहुल के मन में सत्ता को लेकर दुविधा है जो कांग्रेस के टूटे मनोबल के लिए अच्छा संकेत नहीं है. इससे पार्टी के तुरुप के तौर पर राहुल की साख को बट्टा ही लगेगा.
नटवर सिंह यह भी खुलासा करते हैं कि उनके मंत्रालय सहित लगभग हर बड़े मंत्रालय में सोनिया का कोई न कोई भेदिया था. साथ बातचीत में नटवर सिंह ने कहा कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रह चुके संजय बारु ने अपनी किताब, द एक्सीडेंटल प्राइममिनिस्टररू द मेकिंग ऐंड अनमेकिंग ऑफ मनमोहन सिंह में सही लिखा है कि सभी फाइलें सोनिया की मंजूरी के लिए भेजी जाती थीं. नटवर सिंह ने बताया है कि कैसे सोनिया नरसिंह राव और मनमोहन सिंह, दोनों की नींद हराम रखती थीं. राव ने तो उनसे शिकायत भी की थी कि सोनिया की बेरुखी का असर उनकी सेहत पर पड़ रहा है. 2004 में मनमोहन सिंह ने बैंकॉक में एक होटल में नटवर को अपने सुइट में बुलाया और बताया कि वे कितने एकाकी हैं. तब उन्हें प्रधानमंत्री बने एक महीना हुआ था.
नटवर सिंह की यह किताब जितनी आत्मकथा है उतना ही देश के अब तक के एक सर्वशक्तिमान नेता का चित्रण भी है. नटवर सिंह ने विस्तार से बताया है कि किस तरह सहमी, घबराई, शर्मिली सोनिया एक महत्वाकांक्षी, अधिनायकवादी और कड़क नेता बनीं. वे कभी न कुछ भूलती हैं और न किसी को माफ करती हैं. नटवर सिंह ने उन्हें सामाजिक-राजनैतिक सुधार विरोधी करार दिया है. नटवर सिंह सोनिया को अहंकारी, तुनकमिजाज सनकी, चालबाज, प्राइमा डॉना कहते हैं और उनके व्यवहार को जहरीला और धूर्त बताते हैं. नटवर की नजर में सोनिया की पसंद-नापसंद बहुत पक्की है. वे किसी गलती को कभी नहीं भूलतीं और न ही आलोचना को माफ करती हैं. चाहे जयराम रमेश ने हद पार की हो या अर्जुन सिंह ने उन्हें अपनी मंडली से घिरा हुआ बताया हो. किसी को बख्शा नहीं जाता, फिर चाहे वह उनकी सास के पुराने सहयोग केनेथ कौंडा ही क्यों न हों. कौंडा ने पुराने दोस्त दिवंगत ललित सूरी के साथ ठहरने की भारी भूल कर दी थी. सूरी से सोनिया की नाराजगी की वजह नटवर कभी नहीं बताएंगे. उनका कहना है कि, “ऐसे लोगों की फेहरिस्त लंबी है जिनकी सोनिया से अनबन हो गई.”
आखिर में सारी बात अनाज के बदले तेल घोटाले तक सिमट जाती है. नटवर सिंह का मानना है कि उन्हें इस मामले में बलि का बकरा बनाया गया. उन्होंने लिखा है कि जस्टिस आर.एस. पाठक समिति ने उन्हें बेगुनाह मान लिया था. लेकिन कैसे यह सच आज तक सामने नहीं आया कि पैसा आखिर किसके पास गया. नटवर सिंह ने बताया है कि संयुक्त राष्ट्र के पूर्व अवर महासचिव वीरेंद्र दयाल 70,000 पन्नों के दस्तावेज लाए थे और उन्हें प्रवर्तन निदेशालय को सौंपा था लेकिन उनका क्या हुआ, कोई नहीं जानता. नटवर ने जब जस्टिस पाठक से पूछा कि उनकी पड़ताल क्यों नहीं की गई तो जवाब मिला, “यह कहानी लंबी है.” नटवर का मानना है कि सोनिया के कहने पर ही सारा दोष उनके सिर मढ़ा गया. वे कहते हैं, “कांग्रेस में उनकी जानकारी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता.”
लेकिन नटवर ने सोनिया पर जो सबसे करारा प्रहार किया है, उसके सामने सब फीका है. वे लिखते हैं कि कोई भारतीय कभी ऐसा आचरण नहीं कर सकता जैसा सोनिया ने किया. उनका कहना है कि सोनिया के मन में एक अभारतीय कोना है जो लोगों को भावनाशून्य होकर अपनी जिंदगी से बाहर फेंकने के उनके अंदाज से जाहिर होता है. नटवर ने बताया, “वें 19 साल की थीं, तब से भारत में हैं. उन्होंने भारत की हर चीज को घोटकर पी लिया है, कभी कोई गलती नहीं की. फिर भी उनके व्यक्तित्व का 25 प्रतिशत हिस्सा कभी नहीं बदल सकता.”
ये सारी बातें बीजेपी को बहुत सुहाएंगी. वे यह अच्छी तरह जानते हैं, फिर भी चुनौती देते हैं कि कांग्रेस का कोई नेता इसे बीजेपी की साजिश बताकर तो देखे. यह बात और है कि उनके पुत्र जगत सिंह राजस्थान में गोपालगढ़ से बीजेपी विधायक हैं और पुस्तक का समापन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को विदेश नीति पर सलाह देने के लिए नटवर सिंह की मुलाकात से होता है. इस पुस्तक में ऐसा और भी बहुत कुछ है जिससे नेहरू-गांधी परिवार के आलोचकों को मसाला मिलेगा. नेहरू के वफादार नटवर सिंह ने एडविना माउंटबेटन के साथ पहले प्रधानमंत्री के प्रेम प्रसंग के साथ यह भी लिखा है कि नेहरू ने अपने पत्रों में सरकार के कई राज एडबिना को बताए. नटवर सिंह की नजर में राजीव गांधी “सबसे सुंदर इंसान थे लेकिन अपनी मंडली पर भरोसा करने की भूल करते थे जिससे उनके साथी अरुण सिंह ने प्रधानमंत्री को सूचित किए बिना जनरल के. सुंदरजी के साथ मिलकर भारत और पाकिस्तान को युद्ध के कगार पर खड़ा कर दिया था.” नटवर सिंह की आलोचना से सिर्फ इंदिरा गांधी मुक्त हैं.
नटवर सिंह ने उस जगह से उठने का हौसला दिखाया है जहां हर कांग्रेसी बिना सवाल किए सिर झुकाए बैठा रहता है. बेहद कमजोर हो चुकी कांग्रेस में क्या कोई और ऐसा करेगा?
नटवर सिंह की पुस्तक के अंश
इंदिरा गांधी ने 1967 के अंतिम दिनों में एक दिन मुझसे कहा, “नटवर कोई और तुम्हें बताए उससे पहले मैं बता रही हूं कि राजीव शादी कर रहे हैं.”
मैंने पूछा, “कौन खुशकिस्मत लड़की है?”
“इटली की है. दोनों कैंब्रिज में मिले थे.”
“शादी कब है?”
इंदिरा गांधी ने कहा, “फरवरी में.”
यह वाकई बहुत बड़ी खबर थी. राजीव उस समय देश में सबसे चहेते कुंवारे नौजवान थे, खूबसूरत और बेहद आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी. दो साल छोटी सोनिया न सिर्फ देश में सबसे प्रसिद्ध राजनैतिक परिवार के सदस्य से विवाह कर रही थीं बल्कि उनका विवाह नेहरू-गांधी परिवार नाम की एक संस्था से हो रहा था. राजीव के बारे में पहले कई बदनाम करने वाली अफवाहें उड़ी थीं लेकिन एडविग आंतोनिया अलबाइना माइनो के साथ राजीव की शादी की खबर बाहर आते ही सारी अफवाहें खुद-ब-खुद शांत हो गई.
25 फरवरी, 1968 को विवाह संपन्न हुआ. श्रीमती गांधी ने अगले दिन हैदराबाद हाउस में राजीव और सोनिया की शादी की दावत दी. सबकी नजरें वधू पर थीं. मुझे आज भी याद है कि सोनिया कितनी नर्वस थीं. तुरिन से नई दिल्ली तक का फासला बहुत बड़ा था. कट्टर रोमन कैथलिक परिवार की बेटी एकदम अजनबी माहौल में आ गई थी. सांस्कृतिक बदलाव का झटका हिला देने वाला था. भारत में सोनिया का न कोई मित्र था, न भारतीय भाषाओं, संस्कृति, रीति-रिवाज, परंपराओं, विरासत, इतिहास और धर्म की कोई समझ या जानकारी थी. वे बस राजीव के लिए अपने प्रेम और अपने लिए राजीव के प्रेम से बंधी थीं. सोनिया ने एक बार मुझे बताया था कि उनके जीवन में कभी कोई और पुरुष नहीं रहा. राजीव और वे शादी करने के लिए सारी दुनिया से लड़ सकते थे. यह जोड़ा सबको लुभा रहा था. सबकी नजरों में चढ़ रहा था. खूबसूरत राजीव और अपनी शालीनता में डूबीं सोनिया.
सोनिया के जीवन को चार चरणों में बांटा जा सकता है. पहला चरण वैवाहिक सुख, प्रेम, मस्ती और दुनिया में मशहूर सास के संरक्षण में सीखने का दौर था. सोनिया सौभाग्य की छांव में शान से चलती रहीं. यह युग 31 अक्तूबर, 1984 को एकाएक समाप्त हो गया जब इंदिरा गांधी की उनके ही सुरक्षार्किमयों ने हत्या कर दी. सोनिया और (इंदिरा के निजी सचिव) आर.के. धवन उनका गोलियों से छलनी लहूलुहान शरीर लेकर अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) पहुंचे थे.
दूसरा चरण सिर्फ 7 वर्ष का था. कांग्रेस कार्यकारिणी ने प्रस्ताव पारित कर राजीव को अपनी मां का उत्तराधिकारी चुना. सोनिया उन्हें प्रधानमंत्री बनने से रोकने के लिए उनसे बाघिन की तरह लड़ीं. सोनिया को डर था कि राजीव की भी हत्या हो जाएगी. लेकिन राजीव के सामने उनका कर्तव्य था, निजी जीवन की अहमियत उसके सामने छोटी हो गई. सोनिया के बेपरवाह, बिंदास दिन खत्म हो चुके थे. वे प्रधानमंत्री की पत्नी बनीं और सरकारी यात्राओं पर दुनिया भर में अपने पति के साथ रहीं. अब राजीव और सोनिया जिंदगी को दूर से नहीं देख सकते थे. वे राजनीति की उथल-पुथल के केंद्र में थे. सोनिया कभी बेहद अलग-थलग दिखती थीं. लेकिन वे बहुत गहराई से इस जिंदगी में डूब चुकी थीं. शुरू-शुरू में वे अजनबियों के साथ सहज नहीं हो पाती थीं और बहुत कम बोलती थीं. उस दौर में किसी देश के नेता के साथ उन्हें गर्मजोशी से बात करते शायद ही किसी ने देखा होगा.
इस चरण ने भी अधिक दिन तक उन्हें सुख नहीं दिया. राजीव गांधी भी होनी के शिकार हुए. 21 मई,1991 को सोनिया का संसार लुट गया जब तमिलनाडु के श्रीपेरुंबुदूर में राजीव गांधी की हत्या हो गई. सोनिया का जीवन सूना हो गया.
“शंकरदयाल शर्मा ने कहा, मेरी उम्र प्रधानमंत्री बनने लायक नहीं”
अंतिम संस्कार के बाद राजनैतिक गतिविधियां तेजी से घूमीं. कांग्रेस का अध्यक्ष पद चाहने वालों में अर्जुन सिंह, नारायण दत्त तिवारी, शरद पवार और माधवराव सिंधिया शामिल थे. सोनिया गांधी से जब पद संभालने को कहा गया तो उन्होंने इनकार कर दिया. मैंने उनसे कहा कि अब वे इस पद के लिए अपनी पसंद बता दें. वे जिसे चुनेंगी वही प्रधानमंत्री बनेगा. इतने बड़े फैसले के लिए मैंने उन्हें पी.एन. हक्सर से सलाह लेने का सुझाव दिया. इस बीच, उन्होंने माखनलाल फोतेदार सहित कई लोगों से बात की.
अगले दिन सोनिया ने मुझसे हक्सर को 10 जनपथ लाने को कहा. हक्सर ने सलाह दी कि उपराष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा के सामने पार्टी अध्यक्ष बनने की पेशकश रखी जाए. उनका सुझाव था कि अरुणा आसफ अली और मैं उपराष्ट्रपति से बात करूं. देश में अरुणा आसफ अली का कद बहुत बड़ा था. उन्होंने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में बड़ी भूमिका निभाई थी. वे शंकरदयाल शर्मा को बहुत अच्छी तरह जानती थीं. मैं भी दशकों से शंकरदयाल जी से परिचित था. उनसे मेरी पहली मुलाकात तब हुई थी जब वे भोपाल में मुख्यमंत्री थे. हम दोनों के बीच नाता कैंब्रिज विश्वविद्यालय से भी जुड़ता था. दोनों ही उससे जुड़े रहे हैं.
अरुणा आसफ अली ने सोनिया का संदेश उपराष्ट्रपति को सुनाया. उन्होंने धीरज से सारी बात सुनी फिर बोले कि सोनिया जी का इतना विश्वास देखकर मैं बहुत सम्मानित और भावुक हूं. उसके बाद जो कुछ सुना उससे अरुणा जी और मैं भौंचक रह गए. उपराष्ट्रपति ने कहा, “भारत के प्रधानमंत्री का काम 24 घंटे का है. मेरी आयु और स्वास्थ्य मुझे देश के सबसे महत्वपूर्ण पद के दायित्वों के साथ न्याय नहीं करने देंगे. आप सोनिया जी को बता दें कि इतनी बड़ी जिम्मेदारी न उठा पाने के मेरे कारण क्या है.”
उपराष्ट्रपति का इनकार सुनने के बाद मैंने सोनिया को फिर पी.एन. हक्सर की राय लेने को कहा. उन्होंने सलाह दी कि पी.वी. नरसिंह राव को बुलाया जाए.
“सोनिया को नरसिंह रावबहुत पसंद नहीं थे”
तीसरा चरण 1991 से 1998 तक चला. सोनिया राजीव की स्मृतियों को जिंदा रखकर अकेले में जीती रहीं. उनको राजनीति में लाने की सभी कोशिशें ठुकरा दी गईं. इस बारे में सबसे बुलंद सार्वजनिक अपील तालकटोरा गार्डन में एआइसीसी की बैठक में हुई. जब सोनिया वहां पहुंचीं तो सभी खड़े हो गए और “सोनिया- सोनिया” के नारों से पूरा स्टेडियम गूंज उठा. उनसे मंच पर बैठने का आग्रह किया जा रहा था. 10 मिनट तक तालियां थमने का नाम ही नहीं ले रही थीं. कांग्रेस कार्यकारिणी की एक सदस्य ने उनके पास जाकर अनुरोध किया कि वे मंच पर आएं. लेकिन सोनिया ने साफ-साफ कह दिया कि अगर यह नुमाइश फौरन बंद न की गई तो वे वहां से उठकर चली जाएंगी.
उस दौरान सोनिया ने राजीव गांधी फाउंडेशन की स्थापना की और राजीव के बारे में दो शानदार संस्करण प्रकाशित किए, जिनमें वे तीन वर्षों में अधिकतर समय व्यस्त रहीं. सोनिया ने नेहरू स्मारक निधि और इंदिरा गांधी स्मारक ट्रस्ट का अध्यक्ष पद भी संभाल लिया और दिल्ली में छह अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किए, जिनमें हमने जाने-माने विद्वानों, कलाकारों और राजनेताओं को आमंत्रित किया. मैंने सुझाव दिया कि सोनिया देश के विभिन्न हिस्सों में ऐसे ही सम्मेलन आयोजित करें. हर शहर में मीडिया, बुद्धिजीवियों और विश्वविद्यालयों का उत्साह देखने लायक था. सोनिया सहज ही मुख्य आकर्षण थीं. वे जितना मीडिया से दूर रहती थीं, मीडिया उतना ही उनका पीछा करता था. सम्मेलनों में वे सिर्फ अपना भाषण पढ़ती थीं और आयोजनों का संचालन मुझे सौंप देती थीं.
सोनिया ने पी.वी. नरसिंह राव को प्रधानमंत्री तो बना दिया था लेकिन उन्हें ज्यादा पसंद नहीं करती थीं. मेरा भी उनसे मनमुटाव हो गया और मैं तिवारी कांग्रेस में शामिल हो गया था पर बाद में हम फिर एक हो गए.
मैंने सुझाव दिया कि वे (राव) मोहम्मद यूनुस से बात करें जो बराबर सोनिया के संपर्क में बने हुए थे. यूनुस दशकों से नेहरू परिवार के अंतरंग मित्र थे. वे स्वाधीनता सेनानी खान अब्दुल गफ्फार खां के भतीजे थे. कुछ दिन बाद रात 9 बजे के बाद नरसिंह राव अपने लाव-लश्कर या पुलिस की गाडिय़ों के बिना यूनुस के घर पहुंचे. चुपचाप हुई इस मुलाकात में मैं भी मौजूद था. इस तरह की मुलाकात के लिए पी.वी. की सहमति से साफ जाहिर था कि वे सोनिया के साथ संबंध सुधारने को उत्सुक थे. पर ऐसा नहीं हुआ. हो सकता है यूनुस के दखल से सोनिया चिढ़ गई हों.
“सोनिया से भाषण के लिए मुलाकातें बहुत कष्टदाई होती थीं”
सोनिया गांधी के जीवन का चौथा चरण 14 मार्च, 1998 को शुरू हुआ, जब नई दिल्ली के सिरी फोर्ट सभागार में कांग्रेस कार्यकारिणी की विशेष बैठक में उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी संभाली. वे न अच्छी वक्ता थीं, न संवाद में माहिर थीं जबकि इतने बड़े राजनेता के लिए ये दोनों कौशल अनिवार्य हैं. उनका पहला भाषण तैयार करने में कई घंटे तकलीफ झेलनी पड़ी. वे प्रियंका के साथ सिरी फोर्ट पहुंचीं और मुझे बुलाकर कहा कि बगल में बैठ जाओ. जयराम रमेश को भी भाषण में कुछ और रंग डालने के लिए बुलवाया गया. हालांकि घबराहट के बावजूद सोनिया पहली बाधा आराम से पार कर गईं.
मुझे याद है कि सोनिया का हर भाषण तैयार करने में कितनी मेहनत और छह से आठ घंटे का समय लगता था. कभी-कभी तो कष्ट भरी भाषण बैठकें आधी रात तक चलती थीं. कभी-कभी वे और मैं अकेले भाषण पर काम करते थे. वे जोर-जोर से भाषण पढ़ती थीं और मैं समय देखता था. फिर उसका हिंदी अनुवाद होता था. हिंदी अनुवाद को फिर रोमन अक्षरों में लिखा जाता था और मोटे अक्षरों में छापा जाता था. यह स्थिति अधिक दिन नहीं चली.
अंग्रेजी में तो वे करीब-करीब निपुण हैं. समस्या हिंदी में है. वे लिखित भाषण देखे बिना हिंदी नहीं बोल सकतीं. मैंने सुझाव दिया कि वे तुलसीदास की एक-दो चौपाई या कबीर के दोहे रट लें और भाषण में बोल दिया करें. उन्होंने हाथ खड़े कर दिए, “मैं तो लिखा हुआ पढऩे में ही परेशान हो जाती हूं. तुम बिना पढ़े बोलने को कह रहे हो? भूल जाओ.”
कांग्रेस के कई बड़े नेताओं ने अपने सुझाव और भाषणों के मसौदे भेजे जो शायद ही कभी इस्तेमाल हुए. भाषण तैयार करने के लिए लंबी बैठकों में जयराम रमेश बिलानागा मौजूद रहा करते थे. कंप्यूटर पर उनकी जादूगरी काम आती थी. वे अच्छे साथी हैं. उनका दिमाग बेहद पैना है पर उनका मजाकिया स्वभाव कभी-कभी परेशानी में डाल देता था. कभी-कभी मैं उनके मजाक का शिकार हो जाता था और सोनिया मेरी बेचैनी का मजा लेती थीं.
तब तक मैं सोनिया से अकसर मिलने लगा था. मैंने उन्हें याद दिलाया कि उनके परिवार के बहुत से अंतरराष्ट्रीय मित्र हैं जो राजीव की मृत्यु के बाद से उपेक्षित हैं. इन संबंधों को फिर से जागृत करना चाहिए और उनसे संपर्क कायम करना चाहिए. उन्होंने पूछा कि कैसे करें. मैंने बताया कि विदेश मंत्रालय में अपने पुराने साथियों की मदद से मैं यह इंतजाम कराता हूं कि भारत आने वाले विदेश मंत्री और प्रधानमंत्री उनसे मिलने आएं. आखिरकार, कांग्रेस अध्यक्ष होने के नाते वे एक मायने में विपक्ष की नेता भी तो थीं.
मैंने इस बारे में अपने दोस्त ब्रजेश मिश्र से बात की. उन्होंने इनकार तो नहीं किया पर वादा भी नहीं किया. कुछ महीने बाद विदेश मंत्रालय दूसरे देशों के विदेश मंत्रियों और प्रधानमंत्रियों की यात्रा के कार्यक्रमों में कांग्रेस अध्यक्ष से मुलाकात को भी शामिल करने लगा.
पहले पहल सोनिया इन मुलाकातों के प्रति उत्सुक नहीं रहती थीं. उनका सवाल होता था, “मैं उनसे क्या कहूंगी?” मेरी सलाह होती थी, “सुनिए, आपको बहुत सारी जानकारी मिलेगी.” 1999 और 2005 के बीच इनमें से अधिकतर बैठकों में मैं मौजूद रहता था. मेहमान के आने से कुछ मिनट पहले 10 जनपथ पहुंच जाता था. शुरू-शुरू में तो सोनिया बराबर मेरी तरफ मुड़ जाती थीं जिससे मुझे बड़ी झेंप लगती थी. इस पर सबकी नजर पड़ी. मैंने कहा कि वे ऐसा करने से बचें. धीरे-धीरे इन मेहमानों के साथ सोनिया की बातचीत में मीडिया की दिलचस्पी बढऩे लगी.
सोनिया को प्रियंका और उनके बच्चों की सुरक्षा की बड़ी फिक्र रहती थी. मैंने ब्रजेश मिश्र से बात करने का वादा किया और बाद में उनसे बात भी की. उन्होंने सोनिया की इच्छा के अनुसार चुपचाप जरूरी इंतजाम कर देने का भरोसा दिलाया था.
सोनिया से मेरी बढ़ती नजदीकी भी छिपी नहीं रही. मैं लगभग रोज 10 जनपथ जाने लगा था. लोग मुझे सोनिया के दरबार के सबसे विश्वस्त लोगों में गिनने लगे और कुछ शुभचिंतकों ने तो जोश दिलाया, “आप उनके सबसे अच्छे संकटमोचन हैं.”
मेरा जवाब होता था, “बकवास”
सोनिया और मेरे बीच राजनैतिक चर्चा एकदम अलग, गंभीर और ठोस मुद्दे पर होती थी. हालांकि अनौपचारिक बातचीत और गपशप बहुत दिलचस्प हुआ करती थी. एक बार मैं अपनी विदेश यात्रा से लौटा तो उनके पहले शब्द थे, “मैंने आपको मिस किया.”
सोनिया अब लोगों के सामने कम झिझकने लगी थीं पर अभी बहुत फासला तय करना बाकी था. कार्यकारिणी की बैठकों में भी वे बहुत कम बोलतीं थीं और रूखी लगती थीं.
“सोनिया ने कौंडा को ललित सूरी का होटल छोडऩे पर मजबूर किया”
भारत की स्वाधीनता के 50 वर्ष पूरे होने पर 15 अगस्त, 1997 को इंदिरा गांधी स्मारक ट्रस्ट ने एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया और जांबिया के पूर्व राष्ट्रपति केनेथ कौंडा को आमंत्रित किया. इससे पिछले वर्षों में सभी मेहमानों को बाराखंभा रोड पर ललित सूरी के होटल में ठहराया जाता था.
1997 के सम्मेलन में सोनिया ने फैसला किया कि मेहमान ओबेरॉय होटल में ठहरेंगे. कौंडा एक दिन बाद आए और पहले की तरह हवाई अड्डे से सीधे सूरी के होटल में पहुंच गए. मैंने सोनिया को उनके आने और सूरी के होटल में ठहरने की सूचना दी. सोनिया भड़क गईं और मुझ्से कहा कि कौंडा से मिलकर उनसे ओबेरॉय में ठहरने का अनुरोध करूं. साफ तौर पर यह मांग अनुचित थी. मैं कौंडा को कई वर्ष से जानता था पर मेरा काम कतई आसान नहीं था. मैंने कौंडा को जब इस बारे में बताया तो उन्होंने कहा कि अब वे वहां ठहर गए हैं और लंबी उड़ान के बाद आराम करना चाहते हैं. मैंने सोनिया को कौंडा का संदेश दे दिया. मामला वहीं खत्म हो जाना चाहिए था, पर नहीं हुआ. अहंकार हावी हो गया. सोनिया ने मुझसे कहा कि कौंडा के पास वापस जाओ और उनसे ओबेरॉय में ठहरने के लिए फिर आग्रह करो. मैंने बहुत समझाया पर उन्होंने मेरी एक न मानी. मैंने उनसे यहां तक कह दिया कि उनकी यह जिद्द किसी भी मायने में सही नहीं है.
कौंडा अफ्रीका के एक सबसे सम्मानित और प्रशंसित नेता थे. वे सोनिया से 22 साल बड़े थे. इंदिरा गांधी और राजीव गांधी कभी किसी से ऐसा रूखा व्यवहार नहीं करते थे. दूसरा संदेश सुनने के बाद कौंडा ने कहा कि उनकी स्थिति बड़ी विचित्र हो जाएगी. उनका कहना था कि “भला सूरी से मैं क्या कहूंगा.” कौंडा मेरी हालत भांप गए. मैंने बता दिया कि अब संबंध अच्छे नहीं हैं. कौंडा सूरी से क्षमा याचना के बाद होटल बदलने पर सहमत हो गए.
सोनिया जानबूझकर सनकीपन दिखा रही थीं. यह उन्हें शोभा नहीं देता था. कौंडा के साथ हुई यह घटना अशोभनीय थी.
“272 के समर्थन की गफलत के बाद कोई और नहीं बच पाता”
1998 में सोनिया ने तय किया कि अब लोकसभा में उनके प्रवेश का समय आ गया है. खानदानी सीट अमेठी से वे भारी बहुमत से चुनी गईं. इसके बाद कांग्रेस संसदीय दल का नेता चुना जाना स्वाभाविक था. लेकिन अपने पहले कार्यकाल में वे एक बार भी लोकसभा में नहीं बोलीं. असल में कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद सोनिया ने दो बड़ी भूल कीं.
मैं वायरल बुखार में बिस्तर पर पड़ा था तभी राष्ट्रपति के.आर. नारायणन के समझदार सचिव गोपालकृष्ण गांधी का फोन आया. वे चाहते थे कि मैं सोनिया गांधी से मिलकर अनुरोध करूं कि धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए प्रधानमंत्री के तौर पर वे ज्योति बसु का समर्थन करें. मैं यह बात कहने के लिए 10 जनपथ पहुंचा. उनकी स्टडी और सम्मेलन कक्ष में कदम रखते ही मैंने देखा कि प्रणब मुखर्जी, अर्जुन सिंह और माखनलाल फोतेदार वहां पहले से उनके साथ थे. अपनी बात कहने के बाद मुझे लगा कि वे तीनों ज्योति बसु के विरुद्ध थे और सोनिया उनकी तरफ झुक रही थीं. मेरा मानना था कि ज्योति बसु अपने से पहले के दो प्रधानमंत्रियों से कई मायनों में बेहतर होंगे. आखिरकार माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के पोलित ब्यूरो ने ज्योति बाबू को प्रधानमंत्री बनने की अनुमति न देकर हमारी मुश्किल आसान कर दी. बाद में भले ही वे अपनी भूल पर पछताए और उसे ऐतिहासिक भूल की संज्ञा दी गई.
दूसरा गलत फैसला अप्रैल, 1999 के अंतिम सप्ताह में हुआ. राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के नेता अटल बिहारी वाजेपयी जब सरकार नहीं बना पाए तो जबरदस्त राजनैतिक उठा-पटक का दौर चला. कांग्रेस ने अन्य विपक्षी दलों के समर्थन से सरकार बनाने का दावा पेश किया. अर्जुन सिंह और दूसरे नेताओं के कहने पर सोनिया राष्ट्रपति नारायणन से मिलीं और 272 सांसदों के समर्थन का दावा पेश कर दिया. नारायणन ने बहुमत साबित करने के लिए दो दिन दिए. लेकिन ऐन मौके पर समर्थन का भरोसा दिला चुके समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव पलटी मार गए और कांग्रेस के पैरों तले से जमीन खींच ली. 26 अप्रैल, 1999 को लोकसभा भंग कर दी गई. सोनिया बुरी तरह शर्मिंदा हुईं. उस समय तक वे राजनीति के अखाड़े में नौसिखिया थीं और नहीं जानती थीं कि यह कैसा खूनी खेल है. कांग्रेस का कोई और नेता होता तो ऐसी गफलत के बाद दरवाजे के बाहर खड़ा होता.
“वाजपेयी ने न्यूयॉर्क में सोनिया को तुरंत सुरक्षा मुहैया करा दी”
2000 और 2003 के बीच सोनिया अमेरिका गईं और उपराष्ट्रपति डिक चेनी तथा विदेश मंत्री कोडोलीजा राइस जैसी हस्तियों से मिलीं. वे ऑक्सफोर्ड और हांगकांग भी गईं. मैं उनके साथ था. विदेश में उनका व्यक्तित्व एकदम बदल जाता था. सीधी, सहज, तनाव मुक्त, दूसरों का अधिक ख्याल रखने वाली और कम जिद करने वाली महिला हो जाती थीं.
न्यूयॉर्क की एक घटना ऐसी हुई जिसका जिक्र करना यहां मुनासिब है. सोनिया और उनके प्रतिनिधिमंडल के सदस्य—मनमोहन सिंह, मुरली देवड़ा, जयराम रमेश और मैं—कार्लाइल होटल में ठहरे थे. वहां हम शाम को देर से पहुंचे थे. वहां पहुंचकर मुझे पता चला कि न्यूयॉर्क के अधिकारियों ने सोनिया के लिए सुरक्षा का कोई इंतजाम नहीं किया था. मैं हैरान रह गया. उनके कमरे में कोई भी जा सकता था. सोनिया ने इसे नजरअंदाज किया पर मैंने तुरंत प्रधानमंत्री वाजपेयी को फोन किया. दिल्ली में उस समय आधी रात का समय था. बड़े दिल वाले वाजपेयी ने कहा कि वे अभी फोन करेंगे. तकरीबन आधे घंटे बाद वॉशिंगटन में हमारे राजदूत ललित मानसिंह का फोन आया. उन्होंने बताया कि अभी-अभी प्रधानमंत्री का फोन आया था और मुझसे तुरंत सोनिया गांधी के लिए सुरक्षा इंतजाम करने को कहा गया है. अटल बिहारी वाजेपयी अपनी बात के पक्के थे.
“राजनीति ने सोनिया की खाल मोटी कर दी”
जनता में सोनिया की छवि बहुत आकर्षक नहीं है और इसके लिए एक हद तक वे स्वयं जिम्मेदार हैं. वे अपना मन किसी को नहीं पढऩे देतीं, अपने दायरे से बाहर नहीं निकलतीं. वे बेहद गोपनीय और शक करने वाली महिला हैं. लोग उन्हें देखकर हैरान होते हैं, सराहते नहीं. उनके उल्लेखनीय जीवन से मुझे विशाल भारतीय मंच पर अभिनीत एक दुखद ग्रीक कथा की याद आती है. हर व्यक्ति उनकी जीवनी लिखना चाहेगा. अनेक लोगों ने ऐसी कोशिश की है पर कुछ न कुछ कमी रह जाती है. उनकी किताबों में सार और स्टाइल पकड़ नहीं आती है और न ही कोई विश्लेषण और विशेष समझ होती है.
सोनिया ने जब से भारत की धरती पर कदम रखा, उनके साथ शाही व्यवहार हुआ है. उन्होंने प्रमुख महिला की तरह व्यवहार किया है. समय के साथ-साथ वे झिझकती, नर्वस और शर्मिली महिला से महत्वाकांक्षी, अधिनायकवादी और कड़क नेता बनकर उभरी हैं. उनकी नाराजगी कांग्रेसजनों में डर पैदा करती है. कांग्रेस के पूरे इतिहास में लगातार 15 साल तक कोई दूसरा नेता पार्टी अध्यक्ष नहीं रहा. कांग्रेस पर उनकी पकड़ पूरी है. यहां तक कि पंडित जवाहरलाल नेहरू से भी अधिक पक्की और टिकाऊ. उनके नेतृत्व में असहमति कुचल दी जाती है, खुली चर्चा पर एकदम रोक है. चुप्पी को हथियार बनाया जाता है और हर परोक्ष संकेत एक संदेश की तरह है. बर्फीली नजर एक चेतावनी है. विपक्षी दल भी बहुत संभलकर व्यवहार करते रहे हैं, लेकिन अब यह तेजी से बदल रहा है. कांग्रेस पार्टी में असफलता या हार के लिए वे कभी दोषी नहीं होतीं और उनकी कभी आलोचना नहीं की जाती. चाटुकारों की फौज यही नारा लगाती है, “सोनिया जी कभी गलती नहीं कर सकतीं.”
अपने खास सिंहासन पर विराजमान वे कोड़ा फटकराती हैं और राज करती हैं. मनमाने ढंग से लोगों को प्रसाद बांटा जाता है. कम चहेतों को नजरअंदाज किया जाता है. इस मुखौटे के पीछे एक अति साधारण और असुरक्षित व्यक्तित्व उभरता है. उनके सनकीपन की तारीफ होती है. तराशे हुए व्यक्तित्व की छवि प्रचारित की जाती है. राजनीति ने उनकी खाल मोटी कर दी है.
प्रधानमंत्री के साये में
2004 के लोकसभा चुनाव में एनडीए हार गया और कांग्रेस ने बहुमत और सरकार बनाने का दावा करने के लिए कई पार्टियों के साथ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) का गठन किया. हर किसी को उम्मीद थी कि सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बनेंगी. उम्मीद के मुताबिक जब घोषणा नहीं हुई तो अफवाहें उडऩे लगीं. फिर तो टीवी चैनलों ने ऐलान करना शुरू कर दिया कि सोनिया प्रधानमंत्री नहीं बन रही हैं.
कांग्रेस नेताओं की बैठक बुलाई गई. मेरी याददाश्त दुरुस्त है तो बैठक में मनमोहन सिंह, प्रणब मुखर्जी, अर्जुन सिंह, शिवराज पाटील, गुलाम नबी आजाद, माखनलाल फोतेदार और मैं था. बैठक के मकसद के बारे में मेरे और मनमोहन के अलावा किसी को पता नहीं था. सोनिया ने कहा कि उन्होंने मनमोहन सिंह से प्रधानमंत्री बनने का आग्रह किया है. मनमोहन ने फौरन कहा, “मैडम, मुझे जनादेश नहीं मिला है.”
कोई कुछ नहीं बोला. मुझसे बोलने को कहा गया. मैंने मनमोहन से कहा कि जिसे जनादेश मिला है, वह आपको सौंप रहा है. उन्हें यूपीए सरकार की अगुआई करनी थी.
मनमोहन को प्रधानमंत्री के रूप में सोनिया का चयन वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं को रास नहीं आ रहा था. कांग्रेस कार्यकारिणी के ज्यादातर सदस्य उनसे वरिष्ठ थे. कार्यकारिणी के सदस्य इससे भी खफा थे कि उन्हें अंधेरे में रखा गया.
मनमोहन सिंह सरकार ने 22 मई को शपथ ली. मैंने बतौर विदेश मंत्री शपथ ली.
शाम को मैं मनमोहन सिंह से मिला. वे मुझे विदेश मंत्रालय में स्थापित करने के लिए काफी मशक्कत कर चुके थे और आखिरी क्षण तक अमेरिकी लॉबी कथित तौर पर इसे नहीं होने देना चाहती थी. मनमोहन को इसके नतीजे का अंदाजा था. उन्होंने बताया कि अमेरिकी कितने ताकतवर हैं और यह कि शायद वे भारत समेत कुछ देशों को अस्थिर करने की हद तक जा सकते हैं. मैंने सतर्क करने के लिए मनमोहन की तारीफ की लेकिन उन्हें यह भी याद दिलाया कि हमारी विदेश नीति वॉशिंगटन डीसी में नहीं, नई दिल्ली में तैयार होती है. बेशक, मैं भारत-अमेरिकी रिश्ते को मजबूत करने की हरसंभव कोशिश करूंगा लेकिन उनके सामने झुकने का तो सवाल ही नहीं है.
“मनमोहन ने एटमी करार नहीं कराया”
लॉर्ड कर्जन की जीवनी का उपसंहार लिखते हुए विंस्टन चर्चिल ने लिखा, “सुबह सोने, दोपहर चांदी और शाम शीशे की तरह थी.” डॉ. मनमोहन सिंह के बतौर प्रधानमंत्री कार्यकाल को कुछ-कुछ इन्हीं शब्दों में बयान किया जा सकता है.
वे कोई छलावा नहीं करते लेकिन अपनी भावनाओं को छुपाए रखने में माहिर हैं. तीन जनवरी, 2014 को प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने एटमी करार को अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि बताया. लगभग एक दशक तक मैंने इसमें अपनी भूमिका के बारे में कुछ नहीं कहा. लेकिन अब मुझे सुधार करने दीजिए.
राष्ट्रपति जॉर्ज बुश की सरकार में विदेश मंत्री कोंडोलीजा राइस ने अपनी आत्मकथा नो हायर ऑनररू ए मेमोयर ऑफ माइ ईयर्स इन वॉशिंगटन में इस करार के बारे में लिखा है. मैं उसी की कुछ पंक्तियों से अपनी बात शुरू करता हेः
“मैं एक दिन पहले ही भारतीय विदेश मंत्री नटवर सिंह से विलार्ड होटल के उनके सुइट में मिली. साफ-साफ कहें तो हमारे विदेश विभाग में यह बात पच नहीं रही थी कि हम एक ऐसी जगह बात करने जा रहे हैं, जहां प्रेस की मौजूदगी नहीं होगी और माहौल भी अनौपचारिक-सा होगा...नटवर अड़े थे. वे करार तो चाहते थे लेकिन प्रधानमंत्री आश्वस्त नहीं थे कि वे नई दिल्ली में इस पर मुहर लगा सकेंगे. मैं कुछ चकित थी, शायद इसलिए भी कि नटवर के इस संकेत को मैं नहीं पढ़ पाई कि उन्हें अपनी सरकार की ओर से बोलने का अधिकार प्राप्त है...”
हमारी बैठक के बाद कोंडोलीजा ने राष्ट्रपति से बात की और उन्हें बताया कि मनमोहन सिंह करार संपन्न नहीं करा सकते. कोंडोलीजा ने मुझसे बैठक तय कराने का आग्रह किया और मैं आखिरकार यह करने में कामयाब हो गया.
अमेरिकी विदेश मंत्री अगले दिन नाश्ते पर पहुंचीं. वे अपने साथ करार का संशोधित मजमून लेकर आई थीं ताकि मनमोहन सिंह उस पर रजामंदी दे सकें. मैं भी मौजूद था. मनमोहन ने जब मजमून के एक-दो बिंदुओं पर आपत्ति जताई तो मैंने विदेश सचिव श्याम सरन और अनिल काकोडकर से कहा कि वे प्रधानमंत्री के बताए मुद्दों को शामिल करके नया मजमून तैयार करें. नए मजमून के साथ कोंडोलीजा व्हाइट हाउस की ओर चल पड़ीं ताकि उसे राष्ट्रपति को दिखा दें. तब तक सुबह के साढ़े नौ बज चुके थे और जॉर्ज बुश तथा मनमोहन सिंह की बैठक नौ बजे के लिए ही तय थी. मैं प्रधानमंत्री से पहले पहुंच गया और कोंडोलीजा के बगल में बैठा. आखिरकार हम समझौते पर आगे बढ़े.
दिल्ली लौटकर मैंने पाया कि सोनिया गांधी राजी नहीं हैं. उन्होंने पूछा, “नटवर, आप सभी लोग इस पर राजी कैसे हो सके? आप जानते हैं कि देश में अमेरिका की नीतियों को लेकर एक तरह का विरोध है.” फिर भी छह महीने बाद उनका दिमाग बदल गया.
एटमी विधेयक 2008 में लोकसभा में रखा गया. वह मामूली बहुंमत से पास हुआ. एटमी करार पर संसद, वैज्ञानिक बिरादरी और देश सभी बंटे हुए थे. संयोग से वही सबसे प्रचारित एटमी करार बना.
वोल्कर का झटका
1996 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने इराकी जनता की मदद के लिए अनाज के बदले तेल कार्यक्रम शुरू किया. इसके अंतर्गत इराक सरकार संयुक्त राष्ट्र्र की देखरेख में तेल बेचकर जनता के लिए भोजन और चिकित्सा सामग्री खरीद सकती थी. सारा लेन-देन संयुक्त राष्ट्र के माध्यम से होना था. 20 मार्च, 2003 को अमेरिकी सरकार ने व्यापक विनाशकारी हथियारों की तलाश में इराक पर हमला कर दिया. सद्दाम हुसैन को सत्ता से हटा दिया गया और 60 अरब डॉलर का अनाज के बदले तेल कार्यक्रम एकाएक बंद हो गया. कार्यक्रम के संचालन में तमाम गड़बड़ी बताने वाले कागजात सामने आए. पता चला कि सरचार्ज या रिश्वत की रकम को तेल के दाम में शामिल कर लिया जाता था जो सद्दाम हुसैन की जेब में जाती थी. कुछ साल बाद आरोपों की जांच के लिए महासचिव कोफी अन्नान ने स्वतंत्र जांच समिति गठित की जिसे बाद में वोल्कर समिति कहा गया क्योंकि उसके अध्यक्ष अमेरिकी फेडरल रिजर्व के पूर्व अध्यक्ष पॉल वोल्कर थे. वोल्कर को जिन मुख्य आरोपों की जांच करनी थी वे अन्नान और उनके पुत्र कोजो की गतिविधियों से संबंद्ध थे. समिति ने रिपोर्ट तैयार करने में 18 महीने लगाए और 27 अक्तूबर, 2005 को रिपोर्ट सौंप दी. वोल्कर रिपोर्ट के संलग्न दस्तावेजों में उन कंपनियों और व्यक्तियों के नाम थे जिन्हें अनाज के बदले तेल कार्यक्रम से मुनाफ हुआ था.
“सोनिया को मुझे संदेह का लाभ देना चाहिए था”
26 अक्तूबर, 2005 को मैं रूस के विदेश मंत्री सरगेई लावरोव से आपसी बातचीत के लिए मॉस्को गया. मुलाकात से पहले मुझे बताया गया कि तीसरे पहर के सत्र में खुद राष्ट्रपति पुतिन आएंगे. उनसे मेरी आखिरी मुलाकात 28 अक्तूबर को तीसरे पहर होनी थी. यह बैठक शाम पांच बजे खत्म हुई. दो घंटे बाद मैंने फ्रैंकफर्ट के लिए उड़ान पकड़ी, जहां मुझे रात बितानी थी.
अगले दिन सुबह पांच बजे मेरे ऑफिस का निदेशक दौड़ता हुआ आया और बोला कि सयुंक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि निरुपम सेन तुरंत मुझसे बात करना चाहते हैं. मैंने पूछा, निरुपम, मुझे सुबह-सुबह क्यों जगा दिया. मैं उनके मुंह से यह सुनकर हैरान रह गया कि वोल्कर रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र महासचिव को सौंप दी गई है. उसमें मेरा, कांग्रेस पार्टी का और कई कंपनियों का नाम उन लाभार्थियों में शामिल है जिनके साथ कोई अनुबंध नहीं था. रिपोर्ट के अनुसार कांग्रेस पार्टी 1997 से इराक के साथ तेल का कारोबार कर रही थी. सुबह साढ़े छह बजे के आसपास मुझे ई-मेल से द हिंदू के पहले पन्ने की रिपोर्ट मिली जिसमें यह तथ्य उजागर किया गया था.
वोल्कर ने हमारे नाम शामिल करने से पहले कांग्रेस पार्टी या मुझे कभी सूचित नहीं किया जबकि ऐसा करना चाहिए था.
मेरे लिए तो यह जबरदस्त झटका था. उस दिन मैं दिनभर बेचैन रहा. मैंने प्रधानमंत्री को तार भेजा कि मैं दिल्ली पहुंचते ही अपनी स्थिति स्पष्ट कर दूंगा. रवाना होने से पहले मुझे कांग्रेस महासचिव अंबिका सोनी का एक बयान दिखाया गया जिसमें उन्होंने मेरी तरफ इशारा करते हुए कहा था, “जहां तक व्यक्तियों का सवाल है, वे अपना बचाव करने में खुद समर्थ हैं.”
मैं भड़क उठा. मैंने सारा जीवन विदेश सेवा और राजनीति में बिताया है और मैं जानता था कि ऐसा बयान कांग्रेस अध्यक्ष की मंजूरी के बिना जारी नहीं हो सकता. गांधी-नेहरू परिवार के साथ मेरे रिश्तों की शुरुआत जुलाई, 1944 में हुई थी. मुझे संदेह का लाभ तो देना ही चाहिए था.
मैं रात साढ़े 10 बजे पालम हवाई अड्डे पर उतरा. अगले दिन सुबह पता चला कि प्रधानमंत्री शहर से बाहर हैं. मैंने सोनिया से संपर्क नहीं किया क्योंकि पार्टी के अधिकृत बयान से मैं बहुत नाराज था और उम्मीद कर रहा था कि वे मुझे बुलाएंगी. मेरा मानना था कि वे अच्छी तरह जानती थीं कि क्या हो रहा था और क्यों हो रहा था. मीडिया ने मुझे दोषी करार दे दिया था. कुछ वरिष्ठ कैबिनेट मंत्रियों ने मीडिया को यह बात समझाई थी. संयुक्त राष्ट्र में हमारे स्थायी मिशन के संदेशों में साफ लिखा था कि रिपोर्ट में कई बड़ी हस्तियों के नाम अनाज के बदले तेल कार्यक्रम से लाभ पाने वालों में शामिल थे. इनमें कई सरकारों के अध्यक्ष और नामी राजनेता थे. ग्लोबल पॉलिसी फोरम ने वोल्कर समिति को जो पूरी सूची सौंपी थी, उसमें भारत से दो नाम थे—कश्मीर की पैंथर्स पार्टी के भीम सिंह और कांग्रेस पार्टी.
अमेरिकी संसद के निचले सदन की निगरानी और जांच उपसमिति ने 9 फरवरी, 2005 को रिपोर्ट पर चर्चा की. उस समय 270 लाभार्थियों की सूची में मेरा नाम नहीं था. कागजात बताते हैं कि बैठक में एमईएमआरआइ (मिडिल ईस्ट मीडिया रिसर्च इंस्टीट्यूट) के डॉक्टर निमरोद रफायली ने सूची पेश की थी. 9 मार्च को बैठक में पेश की गई सूची में मेरा नाम शामिल कर दिया गया. भारत के अलावा सूची में शामिल सभी देशों ने रिपोर्ट खारिज कर दी.
एक या दो दिन के भीतर मुझ पर कहर टूट पड़ा. कांग्रेस के एक जूनियर कार्यकर्ता और क्रोएशिया में भारत के राजदूत अनिल मथरानी ने दिए एक इंटरव्यू में कहा कि कांग्रेस पार्टी और मैंने 2001 में इराक यात्रा के दौरान अपने लिए तेल बैरल के वाउचर मांगे थे. मथरानी अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के विदेश विभाग में काम कर चुका था. इंटरव्यू में उसने कहा, “बेशक उन्हें, (नटवर सिंह को) शुरू से ही इन सारी बातों की जानकारी थी. वे चुप रहे. नटवर और कांग्रेस को मालूम न होना, कोरा झूठ है.”
“जिम्मेदारी के बिना पीछे से हुकूमत चलाने का सुख”
जनवरी, 2001 में कांग्रेस पार्टी ने इराक के उप-प्रधानमंत्री तारिक अजीज के निमंत्रण पर एक दोस्ताना प्रतिनिधिमंडल बगदाद भेजा. अजीज को मैं कई वर्ष से जानता था. मेरे नेतृत्व में इस दल में महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री ए.आर. अंतुले, पी. शिवशंकर, कैबिनेट मंत्री एडुआर्डा फलेरो, कांग्रेस के विदेश विभाग में सचिव अनिल मथरानी शामिल थे. मैं राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन के नाम कांग्रेस अध्यक्ष का पत्र ले गया था जो मैंने तारिक अजीज को सौंप दिया. मेरा बेटा जगत सिंह उस समय युवा कांग्रेस का महासचिव था. वह मेरे साथ गया था क्योंकि बाइपास सर्जरी के बाद मुझे मदद की जरूरत थी. युवा कांग्रेस से जुड़े होने के कारण उसे गुटनिरपेक्ष छात्र युवा संगठन (एनएएसवाइओ) के सदस्य सुबोधकांत सहाय ने संगठन के सम्मेलन में आमंत्रित किया था. मेरे ख्याल से सहाय भी उस उड़ान में हमारे साथ थे.
जगत के मित्र अंदलीब सहगल के इराक में करोबारी संबंध थे. संयोग से, हमारे प्रवास के वक्त वह भी बगदाद में था. शायद रॉबर्ट वाड्रा से भी उसकी दोस्ती थी. वह अकसर बगदाद जाता था.
मथरानी के इंटरव्यू पर विपक्ष ने संसद में हंगामा किया. कांग्रेस के मंत्रियों और मीडिया ने भी इसे खूब उछाला. जो लोग कल तक मेरे आगे-पीछे रहते थे और सोनिया गांधी से अपनी सिफारिश करवाने को उत्सुक रहते थे, वे अचानक मेरे दुश्मन हो गए. साफ जाहिर था कि मेरे खिलाफ सोच-समझकर ताकतवर लोग अभियान चला रहे थे. कहीं यह नहीं लिखा था कि वोल्कर रिपोर्ट में कांग्रेस पार्टी का नाम भी बिना अनुबंध वाले लाभार्थियों में शामिल है. देश भर में ऐसे तमाम लोग थे जिन्होंने मेरे पक्ष में लिखा और बोला. इनमें पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर भी थे. विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने एक संवाददाता सम्मेलन में शक भी जाहिर किया था कि कहीं मुझे बलि का बकरा तो नहीं बनाया जा रहा.
लगातार जारी बदनामी के बावजूद मैं नहीं झुका. 8 नवंबर को मनमोहन सिंह के साथ मेरी लंबी बैठक चली. मुलाकात सुखद नहीं थी. मैं इतना उत्तेजित था कि मैंने इतने तेज स्वर में बात की जो उन्हें बुरी लगी होगी. कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमंत्री ने तय किया कि विवाद को देखते हुए मुझे विदेश मंत्री का पद छोड़कर बिना विभाग का मंत्री हो जाना चाहिए. कांग्रेस में सोनिया गांधी की जानकारी और सहमति के बिना पत्ता भी नहीं खड़कता. यह बिना जिम्मेदारी की सत्ता और बेखटके पिछली सीट से ड्राइविंग है. मैं जल्दी ही अकेला पड़ गया. मीडिया ने मुझ पर और मेरे परिवार पर दबाव बढ़ा दिया. 6 दिसंबर को मैंने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया.
7 नवंबर, 2005 को संयुक्त राष्ट्र में अवर महासचिव रह चुके वीरेंद्र दयाल को वोल्कर समिति के साथ संपर्क के लिए भारत सरकार का विशेष दूत नियुक्त किया गया. 24 नवंबर को दयाल अपने साथ हजारों दस्तावेज लेकर लौटे और प्रवर्तन निदेशालय को सौंप दिए.
सरकार ने 11 नवंबर, 2005 को आरोपों की जांच के लिए जस्टिस आर.एस. पाठक जांच समिति गठित कर दी. समिति का गठन जिस तरह हुआ था उसे देखकर स्पष्ट हो गया कि उसकी कार्रवाई एकतरफा होगी.
“यूपीए ने वीरेंद्र दयाल के दस्तावेज क्यों छिपाए?”
मैं जस्टिस पाठक को अरसे से जानता था. जब मैं प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सचिवालय में नियुक्त था तब भी मैं उनके पिता जी.एस. पाठक को भी अच्छी तरह जानता था. 1987 में रिटायर होने के तुरंत बाद ही जी.एस. पाठक मेरे पास आए थे. वे हेग में इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस की उम्मीदवारी के लिए मेरा सहयोग चाहते थे. तब मैं विदेश राज्यमंत्री था. विदेश मंत्रालय ने उनके चयन के लिए बहुत मेहनत की थी. मैंने 24 मार्च, 2006 को एक बंद लिफाफे में अपना हलफनामा कमेटी को भेजा लेकिन अप्रैल के शुरू में ही इसके कुछ हिस्से अखबारों में छप गए. मैंने जस्टिस पाठक को इस बारे में बताया लेकिन मुझे कोई जवाब नहीं मिला. 31 मई, 2006 को मुझसे पाठक जांच कमेटी के सामने पेश होने को कहा गया. जस्टिस पाठक के अलावा वरिष्ठ वकील भी उनकी मदद को मौजूद थे. हर एक को संबंधित मंत्रालय ने चुना था. पांच मिनट में ही यह स्पष्ट हो गया कि कमेटी का रवैया पक्षपाती है. उन्हें कांग्रेस को सारे आरोपों से बरी करना है.
जस्टिस पाठक ने अंततः अपनी रिपोर्ट प्रधानमंत्री को 7 अगस्त, 2006 को सौंप दी. अपने फैसले में उन्होंने कांग्रेस पार्टी को एकदम पाक-साफ करार दे दिया था. मेरे बारे में उन्होंने कहा, “इस आशय के कोई सबूत नहीं है कि नटवर सिंह को ठेके से किसी तरह का वित्तीय या कोई और लाभ पहुंचा.” इसके बावजूद वित्त मंत्रालय के ईडी ने मेरे और मेरे बेटे के खिलाफ आरोप पत्र दायर किए. जस्टिस पाठक ने एक बार मुझसे कहा था कि ऐसा करते समय वे बेहद तनाव में थे.
फरवरी, 2006 में मैं अपनी मित्र और राज्यसभा सदस्य शोभना भरतीया के घर पी. चिदंबरम से मिला था. शोभना के.के. बिरला की बेटी हैं. चिदंबरम ने मुझसे कहा कि क्या मुझे ईडी के दफ्तर जाने में कोई आपत्ति है? सरकार दो हफ्तों में मामले को निबटाना चाहती है. मैं मान गया. उन्होंने आश्वासन दिया कि मेरे ईडी जाने की खबर कहीं नहीं आएगी.
ईडी के साथ मेरी दो मुलाकातें हुईं. दोनों ही मुलाकातों के बारे अगले दिन ही मीडिया में छपा. मैंने वित्त मंत्री को फोन किया. उनका जवाब था, “नटवर, हमारे यहां लोकतंत्र है.” मेरे पुत्र को भी दो बार बुलाया गया. हालांकि वोल्कर रिपोर्ट में उसका नाम नहीं था. उसका पासपोर्ट जब्त कर लिया गया. उसे आरोप पत्र दिया गया.
मुझे पता लग गया कि वीरेंद्र दयाल द्वारा हासिल दस्तावेज पाठक कमेटी को दिखाए ही नहीं गए. जब मैंने न्यायमूर्ति पाठक से पूछा तो उनका जवाब था, “मैं क्या कह सकता हूं. यह तो लंबी कहानी है.” आज दिन तक वह रिपोर्ट मेरे लिए रहस्य बनी हुई है.
आखिर यूपीए सरकार इन दस्तावेजों की सामग्री सामने लाने में हिचक क्यों रही थी? इसकी वजह साफ हैः इसमें कुछ असहज तथ्य थे, जिन्हें वह छिपाने का प्रयास कर रही थी.
26 फरवरी, 2008 को महाराजा सूरजमल के शताब्दी समारोह में काफी कांग्रेसी आए थे. वहीं मैंने कांग्रेस पार्टी और राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया. वोल्कर ने लॉस एंजेलिस टाइम्स के एक रिपोर्टर के सामने माना कि रिपोर्ट में संयुक्त राष्ट्र को बेनकाब करने और अन्नान को पद से हटाने के लिए काफी कुछ मसाला था. लेकिन जब वह घड़ी आई तो वोल्कर ने कहा, “मैं बहुत असहज महसूस कर रहा था.” रिपोर्टों के मुताबिक, वोल्कर रिपोर्ट के प्रकाशित होने से कुछ ही घंटे पहले महासचिव और उनके वकील ने वोल्कर से “कोजो अन्नान के व्यापारिक सौदों की भाषा बदलने को कहा.”
ईडी ने अभी मेरा केस निबटाया नहीं है. पिछले सात साल से यह चल रहा है. अब तक ईडी ने मेरे वकील को सिर्फ एक सुनवाई के लिए बुलाया है. मेरे खिलाफ कुछ आयकर मामले हैं जिन्हें मुझे फंसाने के लिए गढ़ा गया है. मीडिया का हमला 2010 तक चलता रहा. लेकिन ऐसे भी हैं जिन्हें मेरे बेकसूर होने कर पूरा विश्वास है.
“अखबारों ने सोनिया के डर से मेरे लेख को लौटा दिया”
कांग्रेस पार्टी से मेरे निष्कासन को कड़कती सर्दी की रात को 2 बजे दो लाइन के नोट में अंजाम दिया गया. उसी शाम इसके लिए कांग्रेस कार्यकारिणी की एक खास बैठक बुलाई गई थी. तब मनमोहन सिंह मॉस्को में थे. उनसे संपर्क किया गया और उन्होंने अपनी मंजूरी दे दी.
दिवंगत अर्जुन सिंह ने मुझे बताया कि एक कोर ग्रुप मीटिंग बुलाई गई, उसके बाद वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने सोनिया से कहा कि यह तो साफ मामला है और मुझे जेल भेजा जा सकता है. एक अन्य बैठक में पाठक जांच प्राधिकरण स्थापित करने का फैसला लिया गया. मुझसे कहा गया कि कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज लखनऊ में हैं, उन्हें खास विमान से उसी रात बुलाया गया. वे उस फैसले के खिलाफ थे क्योंकि मेरे खिलाफ “ममला” नहीं बनता था.
आयकर विभाग और ईडी ने मेरे और मेरे बेटे के खिलाफ मामले दायर किए, हालांकि बेटे का नाम वोल्कर रिपोर्ट में था भी नहीं. अखबारों ने मेरे लेख लौटा दिए थे. एक हिंदी अखबार ने तो कहा कि “वे मेरे लेख नहीं छाप सके क्योंकि सोनिया जी नाराज हो जाएंगी.” पाठक अथॉरिटी और ईडी के सामने मैंने जो कहा वह मीडिया में लीक हो गया.
मनमोहन सिंह या कोई अन्य कैबिनेट मंत्री सोनिया की मंजूरी के बिना मुझे हाथ नहीं लगा सकता था. कांग्रेस ने मुझे “गैर-जरूरी” बनाने का प्रयास किया लेकिन सफल नहीं हुई. मुझे किसी तरह का मलाल नहीं था, मलाल पालता तो अपना स्वाभिमान खो बैठता.
सोनिया की अब तक जो उपलब्धि रही है, वह है कांग्रेस—देश ही नहीं दुनिया की सबसे बड़ी और पुरानी पार्टियों में एक—को लोकसभा में 44 सदस्यों तक समेट देना. किसी भारतीय ने मेरे साथ ऐसा व्यवहार नहीं किया होता.
पुनश्च
जब मैं इस पुस्तक को अंतिम रूप दे ही रहा था कि 7 मई, 2014 को सोनिया गांधी अपनी बेटी प्रियंका के साथ आईं. उनका आगमन अप्रत्याशित और विचित्र भी कहा जा सकता है. वे मेरी आत्मकथा को लेकर आशंकित थीं, शायद किसी खुलासे के डर से.
6 मई को सुबह प्रियंका का फोन आया कि क्या वे मुझसे मिल सकती हैं. मैं राजी हो गया और उनसे घर आने को कहा. आकर्षक व्यक्तित्व वाली प्रियंका अपनी मां की तरह ही शालीन कपड़े पहनती हैं. लेकिन अपनी मां और भाई के विपरीत सहज संवाद प्रतिभा उनमें है. जहां तक मैं जानता हूं, दक्षिण दिल्ली की दूसरी महिलाओं की तरह चुलबुलापन या शोखी उनमें नहीं है. हमने अमेठी, रायबरेली के बारे में बात की. उनके बच्चों के बारे में बात की कि वे बहुत जल्दी बड़े हो रहे हैं.
शुरू में वे हिचक रही थीं लेकिन जल्द ही असली मुद्दे पर आ गईं. उन्हें उनकी मां ने भेजा था. उन्होंने मेरे दिए गए इंटरव्यू की याद दिलाई. अपनी पुस्तक में वे मई, 2004 यानी यूपीए सरकार के शपथ ग्रहण से पहले की घटनाओं को भी शामिल करेंगे? मैंने कहा कि ऐसा इरादा तो है, लेकिन कोई मेरी पुस्तक का संपादन नहीं करेगा. तभी सोनिया अंदर आईं. मैंने कहा, “कितना सुखद आश्चर्य है.” वे जरूरत से ज्यादा मित्रवत व्यवहार कर रही थीं. ऐसा व्यवहार मुझे चकित कर रहा था. यह उनके व्यक्तित्व के एकदम विपरीत था. वे अपने अहंकार को ताक पर रख “करीबी” दोस्त से मिलने आई थीं. ऐसा करने में उन्हें साढ़े आठ साल लग गए.
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