Satyavan Savitri Story in Hindi : सत्यवान सावित्री की कहानी प्राचीन भारत की ऐसी कहानियों में से एक है, जो भारत की पवित्रता को दर्शाती है। इसी कहानी को आधार मानकर आज के समय में कई स्त्रियां Vat Savitri Puja Vidhi विधान की साथ करती हैं। Vat Savitri Puja सत्यवान सावित्री की कथा से प्रेरित है। प्राचीन कहानियों में प्रचलित 'Satyavan Savitri' की कथा काफी प्रसिद्ध है।
यह कहानी एक ऐसी भारतीय नारी Savitri की है, जो अपने पति के प्राण बचाने के लिए यमराज से लड़ जाती है और अपने पति की जान बचाने में सफल भी हो जाती है। इस कहानी में कितनी सच्चाई है। यह तो हमे नहीं पता लेकिन हम आपके बीच इस कहानी को प्राचीन ग्रंथों के आधार पर प्रस्तुत कर रहे है। तो आइए दोस्तों जानते हैं "Satyavan Savitri" की इस पवित्र प्रेम कहानी के बारे में विस्तार से
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सावित्री अत्यंत सुंदर थी। उसकी सुंदरता और गुण की प्रशंसा दूर-दूर तक फैलने लगी। जैसे जैसे सावित्री बढ़ने लगी, वैसे वैसे उसका रूप निखरने लगा था। पिता को उसके विवाह की चिंता होने लगी। अश्वपति चाहते थे कि उसी के अनुरूप सावित्री को पति भी मिले किंतु कोई मिलता ना था। सावित्री का मन बहलाने के लिए अश्वपति ने उसे तीर्थयात्रा के लिए भेज दिया, और उसे आज्ञा दी कि- 'तुझे पति चुन लेने की पूर्ण स्वतंत्रता देता हूं"। सावित्री का रथ जा रहा था, कि उसे एक अद्भुत स्थान दिखाई दिया। अनेक सुंदर वृक्ष के चारों ओर हरियाली थी।
वहीं एक युवक घोड़े के बच्चे के साथ खेल रहा था। उसके सिर पर जटा बनी थी, वह छाल पहने हुए था। उसके मुख पर तेज था। सावित्री ने देखा और मंत्री से कहा कि-- "आज यही विश्राम करना चाहिए"। रथ जब ठहरा वह युवक परिचय पाने के लिए उनके पास आया। उसे जब पता चला कि वह राजकुमारी है तो वह उन्हें बड़े सम्मान से अपने पिता के आश्रम में ले गया। उसने यह भी बताया कि मेरे माता-पिता दृष्टिहीन है। मेरे पिता किसी समय सालवा देश के राजा थे। वह इस समय यहां तपस्या कर रहे है और मेरा नाम सत्यवान है।
दूसरे दिन सावित्री घर लौट गई और बड़ी लज्जा तथा शालीनता से उसने सत्यवान से विवाह करने की अनुमति मांगी। राजा अश्वपति बहुत प्रसन्न हुए कि-- "सावित्री को उसके अनुरूप वर मिल गया है"। किंतु बाद में ज्योतिषियों से पता चला कि सत्यवान की आयु बहुत कम है। वह 1 साल से अधिक जीवित नहीं रहेगा। यह जानने के बाद सावित्री के पिता को बहुत दुख हुआ। उन्होंने सावित्री को सब प्रकार से समझाया कि-- "ऐसा विवाह करना जन्म भर के लिए दुख मोल लेना है"।
सावित्री ने कहा-- "पिताजी! मुझे इस संबंध में आपसे कुछ कहते हुए संकोच तथा लज्जा का अनुभव हो रहा है। मैं विनम्रता के साथ यह निवेदन करना चाहती हूं कि- आपने मुझे वर चुनने की स्वतंत्रता दी थी। मैंने सत्यवान को चुन लिया। अब अपनी बात से हटना आपके आदर्श का अपमान हुआ और युग-युग के लिए अपने तथा अपने परिवार के ऊपर कलंक लगाना हुआ"। अश्वपति सावित्री की बात सुनकर निरुत्तर हो गए। उन्होंने विद्वानों को बुलाकर विचार विमर्श किया।
अंत में राजा अश्वपति ने सावित्री को तथा और लोगों के साथ लेकर सत्यवान के पिता के आश्रम में विवाह करने के लिए चले दिए। जब आश्रम निकट आया तब अश्वपति सब को छोड़कर आश्रम में गए और सत्यवान के पिता घुमंत्सेन से सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का विचार प्रकट किया। घुमंत्सेन ने पहले तो अस्वीकार कर दिया। वह बोले-- "महाराज मैं दरिद्र हूं। तपस्या कर रहा हूं, किसी समय में राजा था , किंतु अब तो कंगाल हूं। राजकुमारी को किस प्रकार अपनी यहां रखूंगा"?
तब अश्वपति ने उन्हें सारी स्थिति बता दी और विवाह कर लेने के लिए आग्रह किया। अंत में सत्यवान के पिता मान गए और वहीं वन में दोनों का विवाह हो गया। अश्वपति विवाह में बहुत साधन अलंकार आदि दे रहे थे। घुमत्सेन ने कुछ भी नहीं लिया। उन्होंने कहा-- "मुझे इससे क्या काम? विवाह के पश्चात सावित्री वहीं आश्रम में रहने लगी। उसने अपने सास-ससुर तथा पति सत्यवान की सेवा में अपना मन लगा दिया। सत्यवान और सावित्री सदा लोक-कल्याण तथा उपकार की बात करते थे।
सावित्री दिन भर घर का काम काज करती थी। जब कभी उसे अवकाश मिलता था तो वह भगवान से अपने पति की लंबी आयु की प्रार्थना करती थी। जैसे-जैसे समय निकट आता गया उनकी चिंता बढ़ती गई। जब सत्यवान के जीवन के 3 दिन शेष रह गए तो सावित्री ने भोजन छोड़ दिया और दिन-रात प्रार्थना करने लगी। लोग उसे भोजन करने के लिए समझाते किंतु वह सबका अनुरोध टालती रही। तीसरे दिन जब सत्यवान जंगल में लकड़ी काटने जा रहे थे, सावित्री भी उनके साथ चली।
यह सब सावित्री पहले से जानती थी। फिर भी उसने अपने पति को निष्प्राण देखा और वह रोने लगी। इसी समय उसे ऐसा जान पड़ा कि कोई भयानक तेज पूर्ण परछाई उसके सामने खड़ी है। उसे देखकर सावित्री भयभीत हो गई। फिर अचानक न जाने कहां से उसमें बोलने का साहस आ गया। उसने कहा-- "प्रभु! आप कौन हैं"। उस छाया ने कहा-- "मैं यमराज हूं। मुझे लोग धर्मराज भी कहते हैं, मैं तुम्हारे पति के प्राण लेने आया हूं। तुम्हारे पति की आयु पूरी हो गई है, मैं उसके प्राण लेकर जा रहा हूं"। इतना कहकर यमराज सत्यवान के प्राण लेकर चलने लगे।
सत्यवान का शरीर धरती पर पड़ा रहा। सावित्री भी यमराज के पीछे पीछे चलने लगी। थोड़ी देर बाद यमराज ने मुड़ कर पीछे देखा तो सावित्री भी चली आ रही थी। यमराज ने कहा-- "सावित्री! तुम कहां चली आ रही हो, तुम्हारी आयु बाकी है। तुम हमारे साथ नहीं आ सकती लौट जाओ"!! इतना कहकर यमराज आगे बढ़े कुछ देर बाद यमराज ने फिर मुड़ कर देखा तो सावित्री चली आ रही थी। यमराज ने फिर कहा-- "तुम क्यों मेरे पीछे आ रही हो"। सावित्री बोली-- "महाराज! मैं अपने पति को कैसे छोड़ सकती हूं"।
यमराज ने कहा-- "जो ईश्वर का नियम है, वह नहीं बदला जा सकता, तुम चाहो तो कोई वरदान मुझसे मांग लो। केवल सत्यवान का जीवन छोड़कर जो मांगना है मांग लो और चली जाओ। सावित्री ने बहुत सोच कर कहा-- "मेरे सास और ससुर देखने लगे और उनका राज्य वापस मिल जाए यमराज ने कहा ऐसा ही होगा"। थोड़ी देर बाद यमराज ने देखा कि सावित्री फिर पीछे-पीछे आ रही है। यमराज ने सावित्री को बहुत समझाया और कहा-- "अच्छा एक वरदान और मांग लो। सावित्री ने कहा-- "मेरे पिता को संतान प्राप्त हो जाए। यमराज ने वरदान दे दिया और आगे बढ़ गए।
कुछ दूर जाने के बाद उन्होंने पीछे गर्दन घुमाकर देखा सावित्री चली आ रही है। उन्होंने कहा-- "सावित्री तुम क्यों चली आ रही हो ऐसा कभी नहीं हुआ कोई जीवित शरीर मेरे साथ नहीं जा सकता। इसीलिए तुम लौट जाओ। सावित्री ने कहा अपने पति को छोड़ कर नहीं जा सकती। शरीर का त्याग कर सकती हूँ"। यमराज चकराया कि यह एक कैसी स्त्री है। इतनी देर से कोई बात नहीं मानती पता नहीं क्या करना चाहती है। उन्होंने कहा-- "अच्छा! एक वरदान मुझसे और मांग लो। मेरा कहना मानो भगवान की जो इच्छा है उसके विरुद्ध लड़ना बेकार है।
सावित्री ने कहा-- "महाराज! आप यदि वरदान ही देना चाहते हैं। तो यह वरदान दीजिए कि मुझे संतान प्राप्त हो जाए। यमराज ने कहा ऐसा ही होगा यमराज आगे बढ़े किंतु कुछ ही दूरी पर उन्हें ऐसा लगा कि वह लौटी नहीं यमराज को क्रोध आ गया। यमराज ने कहा-- "तुम मेरा कहना नहीं मानती हो। सावित्री ने कहा धर्मराज आप मुझे संतान प्राप्ति का आशीर्वाद दे चुके हैं। और मेरे पति को अपने साथ लिए जा रहे हैं यह कैसे संभव है"। यमराज को अब ध्यान आया। उन्होंने सत्यवान के प्राण छोड़ दिया और सावित्री की दृढ़ता और धर्म की प्रशंसा करते हुए चले गए।
इधर सावित्री उस पेड़ के पास पहुंची जहां सत्यवान जीवित पड़ा था। सावित्री ने अपनी धर्म तथा तपस्या के बल से असंभव को संभव बना दिया। तप और दृढ़ता में इतना बल होता है कि उसके आगे देवता भी झुक जाते है। इसी कारण सावित्री हमारे देश की नारियों में सर्वश्रेष्ठ हो गई और आज तक वह हमारे देश का आदर्श बनी हुई है।
यह कहानी एक ऐसी भारतीय नारी Savitri की है, जो अपने पति के प्राण बचाने के लिए यमराज से लड़ जाती है और अपने पति की जान बचाने में सफल भी हो जाती है। इस कहानी में कितनी सच्चाई है। यह तो हमे नहीं पता लेकिन हम आपके बीच इस कहानी को प्राचीन ग्रंथों के आधार पर प्रस्तुत कर रहे है। तो आइए दोस्तों जानते हैं "Satyavan Savitri" की इस पवित्र प्रेम कहानी के बारे में विस्तार से
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सत्यवान सावित्री की कथा - Satyavan Savitri Story in Hindi Satyavan savitri
बहुत प्राचीन युग की बात है, भारत के दक्षिण कश्मीर में अश्वपति नाम का राजा राज्य करता था। वह बहुत धर्मात्मा न्यायकारी और दयालु राजा था। उसके कोई संतान न थी ज्यों-ज्यों राजा की अवस्था बीत रही थी, उसे संतान होने से चिंता बढ़ रही थी। ज्योतिषियों ने उसकी जन्म कुंडली देखकर बताया कि- "आपके ग्रह बता रहे हैं कि आपको संतान होगी"। इसके लिए आप सावित्री देवी की पूजा कीजिए। राजा अश्वपति राज्य छोड़कर वन चले गए 18 वर्ष तक उन्होंने तपस्या की। तब उन्हें वरदान मिला और उनके घर एक कन्या हुई। उसका नाम उन्होंने सावित्री रखा।सावित्री अत्यंत सुंदर थी। उसकी सुंदरता और गुण की प्रशंसा दूर-दूर तक फैलने लगी। जैसे जैसे सावित्री बढ़ने लगी, वैसे वैसे उसका रूप निखरने लगा था। पिता को उसके विवाह की चिंता होने लगी। अश्वपति चाहते थे कि उसी के अनुरूप सावित्री को पति भी मिले किंतु कोई मिलता ना था। सावित्री का मन बहलाने के लिए अश्वपति ने उसे तीर्थयात्रा के लिए भेज दिया, और उसे आज्ञा दी कि- 'तुझे पति चुन लेने की पूर्ण स्वतंत्रता देता हूं"। सावित्री का रथ जा रहा था, कि उसे एक अद्भुत स्थान दिखाई दिया। अनेक सुंदर वृक्ष के चारों ओर हरियाली थी।
वहीं एक युवक घोड़े के बच्चे के साथ खेल रहा था। उसके सिर पर जटा बनी थी, वह छाल पहने हुए था। उसके मुख पर तेज था। सावित्री ने देखा और मंत्री से कहा कि-- "आज यही विश्राम करना चाहिए"। रथ जब ठहरा वह युवक परिचय पाने के लिए उनके पास आया। उसे जब पता चला कि वह राजकुमारी है तो वह उन्हें बड़े सम्मान से अपने पिता के आश्रम में ले गया। उसने यह भी बताया कि मेरे माता-पिता दृष्टिहीन है। मेरे पिता किसी समय सालवा देश के राजा थे। वह इस समय यहां तपस्या कर रहे है और मेरा नाम सत्यवान है।
दूसरे दिन सावित्री घर लौट गई और बड़ी लज्जा तथा शालीनता से उसने सत्यवान से विवाह करने की अनुमति मांगी। राजा अश्वपति बहुत प्रसन्न हुए कि-- "सावित्री को उसके अनुरूप वर मिल गया है"। किंतु बाद में ज्योतिषियों से पता चला कि सत्यवान की आयु बहुत कम है। वह 1 साल से अधिक जीवित नहीं रहेगा। यह जानने के बाद सावित्री के पिता को बहुत दुख हुआ। उन्होंने सावित्री को सब प्रकार से समझाया कि-- "ऐसा विवाह करना जन्म भर के लिए दुख मोल लेना है"।
सावित्री ने कहा-- "पिताजी! मुझे इस संबंध में आपसे कुछ कहते हुए संकोच तथा लज्जा का अनुभव हो रहा है। मैं विनम्रता के साथ यह निवेदन करना चाहती हूं कि- आपने मुझे वर चुनने की स्वतंत्रता दी थी। मैंने सत्यवान को चुन लिया। अब अपनी बात से हटना आपके आदर्श का अपमान हुआ और युग-युग के लिए अपने तथा अपने परिवार के ऊपर कलंक लगाना हुआ"। अश्वपति सावित्री की बात सुनकर निरुत्तर हो गए। उन्होंने विद्वानों को बुलाकर विचार विमर्श किया।
अंत में राजा अश्वपति ने सावित्री को तथा और लोगों के साथ लेकर सत्यवान के पिता के आश्रम में विवाह करने के लिए चले दिए। जब आश्रम निकट आया तब अश्वपति सब को छोड़कर आश्रम में गए और सत्यवान के पिता घुमंत्सेन से सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का विचार प्रकट किया। घुमंत्सेन ने पहले तो अस्वीकार कर दिया। वह बोले-- "महाराज मैं दरिद्र हूं। तपस्या कर रहा हूं, किसी समय में राजा था , किंतु अब तो कंगाल हूं। राजकुमारी को किस प्रकार अपनी यहां रखूंगा"?
तब अश्वपति ने उन्हें सारी स्थिति बता दी और विवाह कर लेने के लिए आग्रह किया। अंत में सत्यवान के पिता मान गए और वहीं वन में दोनों का विवाह हो गया। अश्वपति विवाह में बहुत साधन अलंकार आदि दे रहे थे। घुमत्सेन ने कुछ भी नहीं लिया। उन्होंने कहा-- "मुझे इससे क्या काम? विवाह के पश्चात सावित्री वहीं आश्रम में रहने लगी। उसने अपने सास-ससुर तथा पति सत्यवान की सेवा में अपना मन लगा दिया। सत्यवान और सावित्री सदा लोक-कल्याण तथा उपकार की बात करते थे।
सावित्री दिन भर घर का काम काज करती थी। जब कभी उसे अवकाश मिलता था तो वह भगवान से अपने पति की लंबी आयु की प्रार्थना करती थी। जैसे-जैसे समय निकट आता गया उनकी चिंता बढ़ती गई। जब सत्यवान के जीवन के 3 दिन शेष रह गए तो सावित्री ने भोजन छोड़ दिया और दिन-रात प्रार्थना करने लगी। लोग उसे भोजन करने के लिए समझाते किंतु वह सबका अनुरोध टालती रही। तीसरे दिन जब सत्यवान जंगल में लकड़ी काटने जा रहे थे, सावित्री भी उनके साथ चली।
सत्यवान सावित्री की कथा - Satyavan Savitri Story in Hindi
सत्यवान ने समझाया कि-- "तुमने 3 दिन से कुछ खाया नहीं है, तुम मेरे साथ मत जाओ"। किंतु! वह नहीं मानी और सत्यवान के साथ वन को चली गई।सत्यवान एक पेड़ पर लकड़ी काटने के लिए चढ़ गया। थोड़ी देर में उसने लकड़ी काटकर गिरा दी। सावित्री ने कहा-- "लकड़ी बहुत है उतर आइए"। सत्यवान पेड़ से उतरा। सत्यवान ने कहा-- "मेरे सिर में चक्कर आ रहा है"। धीरे-धीरे सिर में चक्कर बढ़ने लगा। सत्यवान धीरे-धीरे बेहोश होने लगा और कुछ क्षण में उसके प्राण पखेरू उड़ गए।यह सब सावित्री पहले से जानती थी। फिर भी उसने अपने पति को निष्प्राण देखा और वह रोने लगी। इसी समय उसे ऐसा जान पड़ा कि कोई भयानक तेज पूर्ण परछाई उसके सामने खड़ी है। उसे देखकर सावित्री भयभीत हो गई। फिर अचानक न जाने कहां से उसमें बोलने का साहस आ गया। उसने कहा-- "प्रभु! आप कौन हैं"। उस छाया ने कहा-- "मैं यमराज हूं। मुझे लोग धर्मराज भी कहते हैं, मैं तुम्हारे पति के प्राण लेने आया हूं। तुम्हारे पति की आयु पूरी हो गई है, मैं उसके प्राण लेकर जा रहा हूं"। इतना कहकर यमराज सत्यवान के प्राण लेकर चलने लगे।
सत्यवान का शरीर धरती पर पड़ा रहा। सावित्री भी यमराज के पीछे पीछे चलने लगी। थोड़ी देर बाद यमराज ने मुड़ कर पीछे देखा तो सावित्री भी चली आ रही थी। यमराज ने कहा-- "सावित्री! तुम कहां चली आ रही हो, तुम्हारी आयु बाकी है। तुम हमारे साथ नहीं आ सकती लौट जाओ"!! इतना कहकर यमराज आगे बढ़े कुछ देर बाद यमराज ने फिर मुड़ कर देखा तो सावित्री चली आ रही थी। यमराज ने फिर कहा-- "तुम क्यों मेरे पीछे आ रही हो"। सावित्री बोली-- "महाराज! मैं अपने पति को कैसे छोड़ सकती हूं"।
यमराज ने कहा-- "जो ईश्वर का नियम है, वह नहीं बदला जा सकता, तुम चाहो तो कोई वरदान मुझसे मांग लो। केवल सत्यवान का जीवन छोड़कर जो मांगना है मांग लो और चली जाओ। सावित्री ने बहुत सोच कर कहा-- "मेरे सास और ससुर देखने लगे और उनका राज्य वापस मिल जाए यमराज ने कहा ऐसा ही होगा"। थोड़ी देर बाद यमराज ने देखा कि सावित्री फिर पीछे-पीछे आ रही है। यमराज ने सावित्री को बहुत समझाया और कहा-- "अच्छा एक वरदान और मांग लो। सावित्री ने कहा-- "मेरे पिता को संतान प्राप्त हो जाए। यमराज ने वरदान दे दिया और आगे बढ़ गए।
कुछ दूर जाने के बाद उन्होंने पीछे गर्दन घुमाकर देखा सावित्री चली आ रही है। उन्होंने कहा-- "सावित्री तुम क्यों चली आ रही हो ऐसा कभी नहीं हुआ कोई जीवित शरीर मेरे साथ नहीं जा सकता। इसीलिए तुम लौट जाओ। सावित्री ने कहा अपने पति को छोड़ कर नहीं जा सकती। शरीर का त्याग कर सकती हूँ"। यमराज चकराया कि यह एक कैसी स्त्री है। इतनी देर से कोई बात नहीं मानती पता नहीं क्या करना चाहती है। उन्होंने कहा-- "अच्छा! एक वरदान मुझसे और मांग लो। मेरा कहना मानो भगवान की जो इच्छा है उसके विरुद्ध लड़ना बेकार है।
सावित्री ने कहा-- "महाराज! आप यदि वरदान ही देना चाहते हैं। तो यह वरदान दीजिए कि मुझे संतान प्राप्त हो जाए। यमराज ने कहा ऐसा ही होगा यमराज आगे बढ़े किंतु कुछ ही दूरी पर उन्हें ऐसा लगा कि वह लौटी नहीं यमराज को क्रोध आ गया। यमराज ने कहा-- "तुम मेरा कहना नहीं मानती हो। सावित्री ने कहा धर्मराज आप मुझे संतान प्राप्ति का आशीर्वाद दे चुके हैं। और मेरे पति को अपने साथ लिए जा रहे हैं यह कैसे संभव है"। यमराज को अब ध्यान आया। उन्होंने सत्यवान के प्राण छोड़ दिया और सावित्री की दृढ़ता और धर्म की प्रशंसा करते हुए चले गए।
इधर सावित्री उस पेड़ के पास पहुंची जहां सत्यवान जीवित पड़ा था। सावित्री ने अपनी धर्म तथा तपस्या के बल से असंभव को संभव बना दिया। तप और दृढ़ता में इतना बल होता है कि उसके आगे देवता भी झुक जाते है। इसी कारण सावित्री हमारे देश की नारियों में सर्वश्रेष्ठ हो गई और आज तक वह हमारे देश का आदर्श बनी हुई है।
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